हरड
आयुर्वेद में हरड को हरीतकी , यानि मनुष्य की माता के समान हित करने वाली बताया गया है ! इसे अमृतोपम औषधि मानते हुए पथ्या,अभय आदि नाम से भी पुकारा जाता है ! हरड की मूल उत्पति -स्थली गंगा तट है ! यहीं से यह सारे विश्व में फैली है ! यह 50 फीट ऊँचा वृक्ष होता है जो सारे भारत वर्ष में पूर्व से पश्चिम तक 5000 फीट की ऊंचाई तक पाया जाता है ! इसकी छाल भूरे रंग की , फूल छोटे पीताभ सफेद मंजरी में तथा फल 1 से 2 इंच लम्बे अंडाकार होते हैं ! इसके कच्चे फल हरे व पकने पर पीले धूमिल हो जाते हैं ! फल शीतकाल में लगते हैं जिन्हें जनवरी से अप्रैल महीने के मध्य संग्रह करते हैं ! बड़ी व छोटी हरड में से छोटी हरड को अधिक निरापद व सौम्य प्रभाव डालने वाली माना जाता है ! हरड के फल में टैनिन रूप में सक्रिय संघटक चेबुलेजिक एसिड , चेबुलिनिक एसिड व गेलिक एसिड पाया जाता है ! एन्थ्राक्विनिन जाति के गलाईकोसाइड रेचक क्रिया में प्रमुख भूमिका निभाते हैं ! हरड त्रिदोष जन्य विकारों में प्रयुक्त होती है ! इसे लवण के साथ कफज , शक्कर के साथ पित्तज एवं धृत के साथ वातज विकारों में देते हैं ! हरड का टैनिन अम्ल आँतों की श्लेष्मा झिल्लियों पर ऐसा अनुकूल प्रभाव डालता है ताकि उसके मल भाग की रक्षा हो सके ! आंतो को संकुचित कर यह रस स्त्राव को कम करता है ! ग्राही प्रभाव के साथ -साथ इसका प्रमुख गुण रेचक है ! यह पुरानी कब्ज की जीर्ण आँतों को बिना कोई नुकसान पहुंचाए तुरंत लाभ दिखाता है ! इसका जीवाणुनाशी प्रभाव बाह्यरोगाणुओं को नष्ट करने व दुर्गन्ध मिटने के रूप में होता है ! हरड मूलतः वात- शामक होने के कारण नाड़ियों को बलवान बनाती है ! तथा अंतर्कोशीय शोथ मिटाती है ! यह कृमि रोगों , बवासीर , संग्रहणी आदि रोगों में लाभ पहुंचा कर सात्मिकरण की स्थिति लाती है ! यह पित्त को कम करती है ! आमाशय को व्यवस्थित तथा फुले बवासीर के मस्सों की सूजन कम करती है ! इससे पीलिया ,अग्निमन्द्ता , यकृत्प्लिहा वृद्धि में भी बड़ा फायदा होता है ! हरड का फल ही काम में आता है ! छाया में सुखाये फलों के चूर्ण को एक से तीन साल तक प्रयुक्त किया जा सकता है ! बवासीर एवं खूनी पेचिश में हरड के चूर्ण को दही या मठ्ठे के साथ लेते हैं ! मस्सों की सूजन कम करने के लिए हरड क्वाथ का एनिमा भी लिया जाता है ! गेस्ट्राइटीस में मुंह में रखकर चबाकर ,कब्ज में चूर्ण के रूप में तथा त्रिदोष विकारों में भूनकर लेते हैं !
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