जानें इन चार के बारे में - चाणक्य नीति से
अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम ! दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्ध- स्य तरुणी विषम !!(4-15) भावार्थ - अभ्यास न करने पर शास्त्र विष के समान हो जाता है ! अजीर्ण में भोजन विष का काम करता है ! निर्धन के लिए सभाएं विष होती हैं !वृद्ध के लिए युवती विष के समान है ! त्यजेधर्मं दयाहीनं विधाहीनं गुरुंत्यजेत ! त्यजेत्क्रोधमुर्खी भार्या नि :स्नेहान बांध वानस्त्यजेत !! ( 4-16) भावार्थ - प्रीतिहीन समाज, दया रहित धर्म , विधा रहित गुरु का त्याग उचित है ! जो स्त्री क्रोध प्रकट करती हो , उसको भी त्याग देना चाहिए ! ना$स्ति कामसमो व्याधिर्ना$स्ति मोहसमो रिपु :! ना$स्ति कोपसमो वहिनरना$स्ति ज्ञानात परं सुखम !! (5-12) भावार्थ - कामवासना के समान कोई रोग नहीं है , मोह के समान कोई शत्रु नहीं है , कोप के समान कोई आग नहीं है तथा आत्मज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं है ! ऋण कर्ता पिता शत्रु माता च व्यभिचारिणी ! भार्या रूपवती शत्रु : पुत्र शत्रुर्पंडित !! (6-10) भावार्थ - ऋण करने वाले पिता और व्यभिचारिणी माता शत्रु के समान हैं ! मुर्ख पुत्र और अधिक सुंदर स्त्री भी शत्रु के समान ही होते हैं !
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